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कानपुर नगर। चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के कुलपति डॉक्टर आनंद कुमार सिंह द्वारा जारी निर्देश के क्रम में आज अनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर महक सिंह ने बताया कि खरीफ मौसम में तिलहनी फसलों के अंतर्गत तिल की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होने बताया कि तिल की बुवाई का सर्वोत्तम समय जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के दूसरे पखवाड़े तक करते हैं। डॉक्टर महक सिंह ने बताया कि उत्तर प्रदेश में तिल का क्षेत्रफल लगभग 4,17,4 35 हेक्टेयर तथा उत्पादन लगभग 99 767 मीट्रिक टन है।डॉ सिंह ने बताया कि पूरे देश में (राष्ट्रीय स्तर) पर तिल के उत्पादन में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 25% है। तिल के तेल के महत्व के बारे में डॉक्टर सिंह ने बताया कि तिल में मौजूद लवण जैसे कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, जिंक और सेलेनियम आदि मानव के दिल की मांसपेशियों को सक्रिय रखने में मदद करते हैं। उन्होंने बताया कि तिल में डाइटरी प्रोटीन और एमिनो एसिड मौजूद होते हैं जो बच्चों की हड्डियों के विकास को बढ़ावा देते हैं। तथा इसके तेल से त्वचा को जरूरी पोषण मिलता है। डॉक्टर सिंह ने बताया कि उत्तर प्रदेश में तिल की खेती हेतु नवीनतम प्रजातियां जैसे सावित्री, गुजरात तिल 10,गुजरात तिल 20, टाइप 78, शेखर, प्रगति, तरुण,आरटी 351 एवं आरटी 346 प्रमुख हैं। उन्होंने बताया कि तिल का 3 से 4 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है। तथा तिल की बुवाई हेतु ऐसे खेत का चयन करना चाहिए जहां पर पानी का जलभराव न हो ।उन्होंने बताया कि जुलाई के द्वितीय पखवारे तक तिल की बुवाई हो जाने से उत्पादन अच्छा होता है। तथा तिल की बुवाई करते समय पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर तथा बीज की गहराई 3 से 4 सेंटीमीटर पर अवश्य रखें। उन्होंने बताया कि यदि किसान भाई तिल की बुवाई करते समय फोरेट 10 जी, 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से दवा का प्रयोग करते हैं तो तिल में फैलोडी रोग की संभावना कम रहती है ।विश्वविद्यालय के मीडिया प्रभारी एवं मृदा वैज्ञानिक डॉ खलील खान ने बताया कि तिल की फसल हेतु 60 किलोग्राम नत्रजन, 46 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश एवं 25 किलोग्राम गंधक (सल्फर) प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से किसान भाइयों को मात्रात्मक और गुणात्मक लाभ होता है।
